दोपहर ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रही थी कि मोबाइल बजा। हेलो किया और उधर से आवाज़ आयी – क्या आप मृणाल जी बोल रही हैं। मैंने कहा – हां। उधर से कहा गया – मैं दैनिक भास्कर भोपाल से फीचर संपादक मनीषा पांडेय बोल रही हूं। हम नये साल पर महिला सशक्तीकरण पर पेज बना रहे हैं। क्या आप उसके लिए लिख सकती हैं। अगर आपके पास टाइम न हो तो मैं आपसे बात कर इंटरव्यू तैयार कर लूंगी। मैंने कहा – मनीषा जी, मैं लिख कर ई-मेल कर दूंगी, मुझे अपना आईडी दें।
उसी वक्त विषय के विवरण के साथ मनीषा जी का मैसेज भी आ गया। मैंने उनके बताये विषय, शब्द सीमा और समय-सीमा के अंदर आलेख मेल कर दिया। मैंने उनसे फोन कर पूछा भी कि क्या आपको लेख मिल गया। उन्होंने कहा – हां, मिल गया। फिर एक दोपहर दैनिक भास्कर, भोपाल के नंबर से फोन आया। मनीषा पांडेय थीं। उन्होंने कहा – मृणाल जी, आपने अपना नाम मृणाल वल्लरी क्यों लिखा है? आपका नाम तो मृणाल पांडे है।
मैंने हंसते हुए कहा – जी नहीं मेरा नाम मृणाल वल्लरी है। उन्होंने कहा – आप हिंदुस्तान में हैं ना! मैंने कहा – हूं नहीं, थी। अब जनसत्ता में काम करती हूं। मनीषा जी ने आश्चर्य से कहा – क्या आप हिंदुस्तान, कादंबिनी, नंदन की संपादक नहीं हैं।
मेरे नहीं कहते ही मनीषा जी ने फोन काट दिया। या कहें कि उन्होंने फोन पटका। मैं उनके इस रवैये से हैरान थी।
मुझे नहीं मालूम कि उन्हें यह ग़लतफहमी कैसे हुई और मेरा नंबर उन्हें कैसे मिला। लेकिन मेरी इस हैरानी को दूर करने का समय मनीषा पांडेय के पास नहीं था।
यह सही है कि मैं मृणाल पांडे की कद की पत्रकार नहीं हूं। उनकी विकल्प मैं हो भी नहीं सकती। लेकिन अगर मैंने मनीषा जी के कहने पर मेहनत की, उनके लिए काम किया तो एक सॉरी सुनने की हक़दार तो थी। लेकिन मनीषा जी ने फोन ऐसे काटा जैसे किसी बहुत ही घृणित व्यक्ति से बात कर ली हो।
यक़ीन नहीं हुआ कि ये वही महिला हैं, जो पहले इतना मीठा बोल रही थीं। अगर मनीषा जी के पास सही जानकारी नहीं थी, तो अपमान मैं क्यों झेलूं। क्या एक फीचर संपादक का यही व्यवहार होता है कि उसे एक साधारण महिला से सॉरी बोलने में शर्म महसूस हुई। उन्होंने यह बताने की ज़रूरत भी नहीं समझी कि उन्होंने मुझे मृणाल पांडे क्यों समझा।
समझ नहीं आ रहा कि मनीषा के व्यवहार पर दुखी होऊं या अपने नाम के साथ मृणाल जुड़ा होने के कारण।
-मृणाल वल्लरी
अब फैसले मानने नहीं, लेने की बारी
-मृणाल वल्लरी-
अभी-अभी बीता साल भारतीय गणंतत्र के इतिहास में इस लिहाज से यादगार रहा क्योंकि इस साल देश की राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, सत्ता पक्ष की संसदीय दल की नेता और विपक्ष की नेता के पद पर महिलाएं काबिज हुईं। अब इन महिला प्रतिनिधियों को सिर्फ टोकन पद पर बैठी महिलाएं कह कर खारिज़ नहीं किया जा सकता। ये सभी सत्ता के गलियारों में अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज करा चुकी हैं। जो सोनिया गांधी कभी नेहरू-गांधी परिवार की डमी नेता कही जाती थीं, आज भारतीय राजनीति में उनकी हैसियत ‘किंग मेकर’ की है। जो महिला आरक्षण बिल कभी संसद के अंदर फाड़ दिया गया था, वह अब स्थायी समिति से पास होकर संसद में चर्चा के लिए आ गया है। यानी हो सकता है कि 2010 के संसद के सत्र में यह बहुप्रतीक्षित बिल भी पास हो जाए। ऐसा हुआ तो इसका प्रभाव आने वाले समय में महिलाओं की स्थिति को मजबूत करने में होगा।
जब प्रतिभा पाटील ने भारतीय गणतंत्र के कप्तान की कमान संभाली तो आलोचकों ने कहा कि ऐसे टोकन पदों से भारतीय राजनीति में महिलाओं की स्थिति मजबूत नहीं हो सकती। लेकिन आने वाले समय में यह टोकन पद ही मील का पत्थर साबित होने जा रहा है। जब भारतीय वायुसेना के एक अधिकारी मीडिया के सामने लड़ाकू विमानों की कमान महिला पायलटों के हाथों में देने की मुखालफत कर रहे थे, उसी दौरान चौहत्तर साल की प्रतिभा पाटील सुखोई विमान में हाथ में साड़ी के पल्लू के बजाय हेलमेट पकड़ यह बताने की कोशिश कर रही थीं कि जल्द ही लड़ाकू विमानों की पायलट सीट पर महिलाएं भी बैठेंगी। बीते साल के अंत तक विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में महिलाओं के सशक्त दखल ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। महिलाओं की संसद में मौजूदगी की वजह से ही यह संभव हो सका कि महिला विरोधी फैसले का विरोध संसद के भीतर भी होने लगा।
बीते साल के अंत में रुचिका मामले में एक पूर्व डीजीपी राठौर को महज छह महीने की सज़ा का फ़ैसला सबको चौंका गया। लेकिन अदालत के फ़ैसले के साथ ही यह मामला ठंडा नहीं पड़ गया। इस मामले में शिक़ायत करने वाली और अपनी सहेली के लिए लंबी जंग लड़ने वाली आराधना प्रकाश ने अदालत के अंदर कहा – राठौर जैसे अपराधी को सज़ा हुई, बहुत अच्छा हुआ। हमारे संघर्ष और राठौर के अपराध का न्यायपालिका ने सही हिसाब किया, लेकिन इस अपराध को अपनी अस्मिता पर झेलने वाली रुचिका ने जान दे दी थी और उसकी कीमत महज छह महीने। मैं बहुत उदास हूं। न्यायपालिका को ऐसा करारा जवाब देकर एक महिला ने अपना फर्ज पूरा किया। वहीं एक दूसरी महिला विधायिका में अपना फर्ज पूरा कर रही थी। माकपा सांसद वृंदा करात ने फैसला आते ही राज्यसभा में यह मामला उठाया। उन्होंने न्यायिक प्रक्रिया में सुधार के लिए संसद में आवाज़ बुलंद की तो इस मामले पर उनकी मुखालफत करने का साहस कोई नहीं कर पाया।
यह सही है कि रुचिका और मधु जैसी महिलाओं को पूरा इंसाफ नहीं मिल पाया। यों इस तरह की नाइंसाफियां हमारे लोकतंत्र में कोई नयी बात नहीं है। लेकिन इनके ख़िलाफ़ महिलाओं ने आवाज़ बुलंद कर अपनी ज़मीन जिस तरह पुख्ता कर ली है, उससे यह भरोसा ज़रूर पैदा होता है कि अब न्यायपालिका इस तरह के फ़ैसले नहीं दे पाएगी। सच तो यह है कि महिला सशक्तीकरण का रास्ता तब तक पूरी तरह साफ नहीं हो सकता, जब तक विधायी और न्यायिक प्रणालियों में उनकी दमदार पैठ नहीं होगी। आज से एक दशक पहले भी महिलाएं सारे काम करती थीं। लेकिन यह मर्दवादी समाज उन्हें एक बेगार मज़दूर की तरह देखता था। एक ऐसी मज़दूर, जो दुनिया का हर काम तो कर सकती है, लेकिन अपने फ़ैसले खुद नहीं ले सकती है। इसी तरह पूरे देश में भी महिलाओं की हैसियत घर जैसी ही बना दी गयी थी। पुरुष वर्चस्व की अर्थव्यवस्था में बांदी जैसा वजूद लेकर घर की चारदीवारी से कार्यस्थलों के घेरे में तो महिलाएं अस्सी के दशक में पहुंच गयी थीं। लेकिन फ़ैसले लेने और लागू करने वाली संस्थाओं तक महिलाओं की पहुंच नहीं थी। इस वजह से घरों की चारदीवारी के साथ कार्यस्थलों में भी उनका शोषण शुरू हुआ। लेकिन जैसे-जैसे विधायिका और कार्यपालिका में महिलाओं का दबदबा हुआ, उसका सीधा असर अर्थ और सेवा क्षेत्र में पड़ा।
शायद यह पहली बार था जब संसद में मातृत्व अवकाश और पालना घर का मुद्दा गूंज रहा था। टीवी पर चल रहा वह बजट सत्र आज भी याद किया जा सकता है। तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम साड़ियों और कॉस्मेटिक्स सस्ते होने की बाबत एलान करने के पहले एक महिला सांसद की ओर देख कर कह रह थे कि मेरी अगली घोषणा आपके चेहरे पर मुस्कान ला देगी। यह चिदंबरम का चुटीला अंदाज़ भर नहीं था। यह एक ऐसी संसद की तस्वीर थी जो महिलाओं को सिर्फ सजने-संवरने और पहनने-ओढ़ने तक ही देख रहा था। लेकिन महज पांच साल बाद तस्वीर बदल चुकी है। महिला सांसद गहने-कपड़े नहीं, सीधे न्यायपालिका में सुधार की मांग कर रही हैं। वे संसद की सामंती और पुरुषवादी वर्चस्व को तोड़ रही हैं। महिला सांसद कॉस्मेटिक्स और गहने सस्ते होने की नहीं, बल्कि कार्यस्थलों पर यौन शोषण और समान वेतन की बात कर रही हैं। राष्ट्रपति भवन में देश भर से आयीं उन महिला संरपंचों को पुरस्कृत किया जा रहा है, जिन्होंने अपने पंचायत क्षेत्र में कई तरह की सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की। ये महिला सरपंच अपने घर के मर्दों की छाया भर नहीं हैं। ये पंचायत स्तर पर राजनीति का ककहरा सीख संसद में स्त्री सशक्तीकरण का नया इतिहास लिखने की ओर क़दम बढ़ा रही हैं। इस साल तक तो महिलाओं ने नियम और कानून बनाने वाली संस्था की ओर कूच किया है।
यह तय है कि इसका असर घर में काम करने वाली, मिल में मशीन चलाने वाली, निर्माण क्षेत्र में ईंट ढोने वाली, सेवा क्षेत्र में काम करने वाली, खेल के मैदानों में मेडल जीतने वाली महिलाओं पर पड़ेगा। यहां महिला खिलाड़ियों पर आधारित फिल्म ‘चक दे इंडिया’ को याद किया जा सकता है। फिल्म में पुरुष राजनेताओं और नौकरशाहों की वर्चस्व वाली समिति महिला हॉकी खिलाड़ियों की टीम भेजने से इनकार कर देते हैं। समिति का मानना है कि महिलाओं के हाथों में हाकी की स्टिक नहीं बेलन ही ठीक है। समिति में मौजूद एकमात्र महिला का रवैया भी मर्दवादी हो जाता है।
यह तो फिल्मी कहानी है। लेकिन हमारे देश में कानून बनाने वाले भाग्यविधाता ज्यादातर इसी मानसिकता के हैं। अगर उस खेल समिति में पुरुष सदस्यों के बराबर ही महिला सदस्य भी होतीं, तो शायद उन महिला खिलाड़ियों को उतना संघर्ष नहीं करना पड़ता। आज भी हमारे देश में ज़्यादातर महिला खिलाड़ी पुरुषवादी नीतियों के कारण अपना हौसला तोड़ देती हैं। उम्मीद है कि बीते साल फैसले लेने वाले जिन पदों तक महिलाओं ने अपनी पहुंच बनायी है, वह इस साल महिला सशक्तीकरण का नया इतिहास लिखने में कामयाब होगा। (मनीषा पांडेय ने मृणाल वल्लरी से यही लेख लिखवाया था।)
लेखिका मृणाल वल्लरी जनसत्ता की युवा जुझारू पत्रकार हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए कर चुकी हैं. सामाजिक आंदोलनों से सहानुभूति है. मूलत: बिहार के भागलपुर की निवासी हैं. गांव से अभी भी जुड़ाव बना हुआ है. उनसे This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it पर संपर्क किया जा सकता है. यह आलेख मृणाल के ब्लाग पर प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर यहां प्रकाशित कर रहे हैं.

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